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विडंबना: नौगांव के कोटला में पलायन की मार से सूने पड़े हैं गांव

U Times, No.1

पुरोला (उत्तरकाशी)

नौगांव विकासखंड में वीरानी की ये तस्वीरें कोटला के गांवों की है, जो आज पलायन की मार से बेजार हैं। कभी पूरी तरह से आबाद इन गांवों में बच्चों की किलकारियां, महिलाओं की तेज आवाज और पुरुषों के तेज ठहाके खूब सुनने को मिलते थे, लेकिन आज ये गांव वीरान पड़े हैं। 
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यहां के निवासी हैरान थे सरकार की नीतियों से और परेशान थे आने वाले भविष्य के प्रति और अंततः इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में पलायन कर गये। कोटला 4 गावों को मिलाकर एक ग्रामसभा बनी। ये गांव है जखाली, धौसाली, घुंड और कोटला। सभी गावों में लगभग 210 परिवार रहते थे। लेकिन सरकार की नीतियों के कारण लोग इस खूबसूरत जगह को छोड़ने को मजबूर हो गये। जहां कोटला में लगभग 78 प्रतिशत लोगों ने पलायन किया। वहीं बाकी 3 गावों में 98 प्रतिशत लोगों ने पलायन कर लिया।

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इन गांवों में रहते भी तो कैसे, ना शिक्षा ना चिकित्सा, नाही आवागमन के लिये रोड। रास्ते भी हर साल बरसात में टूट जाते थे और क्षेत्र के प्रतिनिधियों ने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ तक  अगर किसी ने पलायन को रोका तो वह था यहां का नकदी फसलों का व्यवसाय यहां की उपजाऊ जमीन में हर परिवार कई कुंतल चौलाई, मडुआ, राजमा  आदि उगाया करते थे और यहां के आलू की मंडी मे भी विशेष मांग होती थी। 
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हर परिवार आलू के सीजन में 30 से 80 कुंतल आलू बेचा करता था। जिस कारण कई सालों तक यह रोजगार पलायन पर भारी पडा़। फिर कुछ सरकार की उपेक्षा से नाखुश और कुछ जंगली जानवरों के आतंक से  लोग धीरे धीरे परेशान हो गये। इन सबके बीच आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को ध्यान में रखते हुये अधिकतर परिवार पलायन कर गये। 1998 के आसपास  उस समय के ग्राम प्रधान सोवेंद्र सिंह राणा के विशेष निवेदन पर उत्तरकाशी विधायक ग्राम जखाली में मन्दिर सौंदर्यीकरण और खेल मैदान का उदघाटन करने आये। खूब भाषणबाजी हुयी। 2 साल के भीतर रोड आने का भरोसा दिया गया, लेकिन दुर्भाग्य की बात है 2 साल की जगह आज 24 साल हो गये लेकिन रोड़ अभी भी मुंगेरीलाल के सपने के समान है। गावों के ऊपरी क्षेत्र में सभी परिवारों के बगीचे है एक समय था, जब यहां खूब सेब हुआ करता था, लेकिन अब सारे बगीचे बंजर है। कारण यह रहा कि यहां के लोगों को सेब उत्पादन की जानकारी का ना होना और पानी के प्राकृतिक जलाशयों का विलुप्त होना। 

अगर इस बागवानी को कोई बचा सकता था तो वह थी सरकारी मदद, जिससे बगीचों तक पानी की व्यवस्था की जाती, लेकिन  सरकार को इन गांवों में पलायन की दशा नहीं दिखी। इस क्षेत्र के जितने भी प्रतिनिधि बने, उनका दोष भी सरकार से बड़ा था, क्योंकि इन लोगों ने कभी इस क्षेत्र को बचाने की कोशिश ही नहीं की, बल्कि सबसे पहले पलायन किया। अगर वे लोग पलायन ना करते तो शायद यह क्षेत्र आज आबाद होता। आजतक न जाने कितने प्रतिनिधि आये और चले गये। विधायक, सांसद आये और घोषणा करके चले गये पर ये क्षेत्र आज भी वीरान है।

बडियाड क्षेत्र जिसे आज तक सबसे दूरस्थ क्षेत्र कहा जाता था, वह भी अब रोड, चिकित्सा और स्कूलों से सुशोभित है, लेकिन इस क्षेत्र का अभी तक दुर्भाग्य बना हुआ है। 
  
साभार: दर्मियान सिंह पंवार (भूतपूर्व सैनिक)

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