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कोई तो बचाओ रे: मर गई इंसानियत, जल गए जंगल !


लोकेन्द्र सिंह बिष्ट, उत्तरकाशी। 

इंसान और इंसानियत कितना खुदगर्ज हो चला है, इसकी बानगी देखनी है तो एक बार उत्तराखंड के इन पहाड़ी जंगलों की तरफ नजर दौड़ा लीजिए। शायद आग से धधकते इन जंगलों की हालत पर किसी के तो भीतर की इंसानियत जाग उठे। खासकर वन विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों की।


कैनवास पर उतारी गई भीषण आग की ये तस्वीरें ना तो किसी मशहूर चित्रकार की पेंटिंग्स है न ही कोई चित्रकारी। तस्वीर पर खिंची ये रेखायें मानो किसी बुजुर्ग महिला व किसी बुजुर्ग पुरुष का रूप धारण कर आपस में बातचीत कर रही हैं और सवाल कर रहे हैं कि आखिर जंगलों में आग लगाता कौन है?

उनके जमाने में तो जंगल में आग लगते ही ग्रामीण ही सबसे पहले आग बुझाने आते थे, क्योंकि उस जमाने गांव की समूची आर्थिकी जंगलों पर ही निर्भर थी। जंगलों से घास, लकड़ी, जलाऊ , इमारती, खेती बाड़ी, खेत खलियान, हवा , पानी, सिंचाई के लिए, पीने के लिए, पशुओं के लिये चारा पत्तियों से लेकर कृषि से संबंधित हल तागड, टोकरी से लेकर बोझ उठाने के लिए रिंगाल, मकान के लिए पत्थर गारे, मिट्टी, मकान की छत के लिए पटाल से लेकर कड़ी तख़्ते, लेपने पोतने के लिए मिट्टी से लेकर लाल मिट्टी, कमेडू, खाने के लिए जँगली फल फूल सभी कुछ तो जंगलों से ही मिलता था। वो भी निशुल्क। 


शायद इसी के चलते ग्रामीण ही सबसे पहले जंगल की आग बुझाने आते थे। दूसरा एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि जंगलों की भीषण आग में प्रतिवर्ष करोड़ों की वन संपदा तो खाक होती ही है, लेकिन अमूल्य दिव्य दुर्लभ देव जड़ी बूटियां, हरियाली, बेजुबान वन्य जीव, पशु पक्षी इस आग की भेंट चढ़ जाते हैं। जिस हानि की न तो सरकारी व न गैर सरकारी स्तर पर समीक्षा की जाती है।

खैर अब तो जंगलों पर जंगलात वालों के अधिकार हैं। उनकी मर्जी से आप एक रिंगाल भी जंगल से काट कर नहीं ला सकते। कलम...बनाने के लिए।

लेकिन जंगलों पर अगर आज कोई भारी है तो खनन माफिया, लक्कड़ माफिया, जड़ी बूटी माफिया, वन्य जीव तस्कर और भू माफिया। इनके लिए सब माफ है। इसीलिए ही शायद इनको माफिया नाम से पुकारा जाता है। जंगलों को आग से बचाना है तो जनता यानी ग्रामीणों व जंगलों के बीच आज से 50 वर्ष पुराने रिश्तों को फिर से जिंदा करने की आवश्यकता है। जब ग्रामीण जंगलों को जंगलात का नहीं खुद का समझने लगेंगे तो उस समय समझो कि जंगलों की आग को नियंत्रित किया जा सकता है।

दूर से इन दोनों बुजुर्गों की बातचीत भी कोई सुन रहा था, इसका आभास होते ही इन रेखाओं से बने बुजुर्गों ने अपनी बातचीत को बीच मे ही खत्म करना अपनी भलाई समझी और इन्होंने तत्काल अपना रूप भी बदल दिया ताकि उन्हें लोग दूर से एक जंगल की भीषण आग की तरह से ही देखें। नहीं तो सरकार और लोग जंगलों की भीषण आग में भी भावनाएं तलाशने लगेंगे।

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